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Sunday, June 27, 2010

सामाजिक चेतना कविता प्रतियोगिता

मनीषिका विगत तीन दशकों से जीवन निर्माण एवं युग निर्माण की दिशा-निर्देशिका संस्था है। यह राष्ट्र की नई पीढ़ी के चरित्र की उज्ज्वलता तथा प्रतिभा को प्रखरता देने के बहुआयामी प्रयासों से निरन्तर सक्रिय है।
साहित्यकार समाज के दर्पण का प्रकाश स्तम्भ है। वर्तमान समय में दहेज, फ़िज़ूलख़र्ची, वधू-उत्पीड़न एवं बलात्कार की घटनाओं पर विशेष ज़ोर है।
सामाजिक प्रदूषण के प्रति सजगता लाने की नितांत आवश्यकता है। इस अभियान में प्रबुध्द कवि बन्धुओं की विशेष भूमिका से ही इसमें क्रान्ति आ सकती है।
कवि-सम्मेलनों के माध्यम से राजनैतिक विषयों पर अनेकानेक कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं पर सामाजिक चेतना के नहीं...........।
इसी संदर्भ में मनीषिका द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर सामाजिक चेतना कविता-प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है।
कविता के प्रस्तावित विषय हैं-

     1) बेटी का जन्म (वातावरण)
     2) बेटे का जन्म (वातावरण)
     3) शादी में कुछ नहीं चाहिए
     4) सुन्दर बहू चाहिए (लड़के की फ़रमाइश)
     5) ससुराल से पत्र माँ के नाम (व्यथा का)
     6) लड़का जाने (पिता का जवाब)
     7) ताऊ के विवाह की स्वर्ण जयन्ती (घर में भाई की विवाह योग्य बेटी कुँआरी)
     8) विवाह सम्बन्धों के बिचौलिए दलाल
     9) लड़की भ्रूण हत्या
     10) बलिवेदी (दहेज उत्पीड़न द्वारा)
     11) अज्ञात भय (पुत्री जन्म से ही)
     12) गीत सम्मेलन (अनुध्देश्य अश्लील गीत, भौंडे नाच)
     13) फ़िज़ूलख़र्ची की शान
     14) तलाक का बढ़ता ग्राफ
     15) Ego आत्मवाद की कलह


कविता प्राप्ति की अंतिम तिथि : 30 अगस्त 2010

प्रथम सम्मान :     5100/-
द्वितीय सम्मान :    3100/-
तृतीय सम्मान :    2100/-

कविता भेजने का पता : 43, कैलाश बोस स्ट्रीट, ग्राउंड फ्लोर, कोलकाता- 700 006
फोन : 033-23605291, 23512436
मोबाइल : 09831612723
फैक्स : 033-22736767

Saturday, June 20, 2009

साधुराम





















कभी गृहस्थ और कभी संत से प्यारे प्यारे साधुराम।
संघर्षो में अड़े रहे और कभी ना हारे साधुराम॥

गीता को जीवन मे जिसने शब्द शब्द स्वीकार किया।
भीड़ भाड़ में रहें सदा ही न्यारे न्यारे साधु राम॥

दक्ष मिला तो दक्ष हो गये आंधी आये या बरसात।
शाखा में जो रहे चमकते चम चम तारे साधुराम॥

हिन्दी हिन्दू गौ की सेवा जेल मिली तो जेल गये।
भारत मां के रहे पुजारी राष्ट्र दुलारे साधुराम॥

धन और पद की लिप्सा से जो सदा सदा ही दूर रहे।
निस्वार्थ भाव से मित्रों के रहे सहारे साधुराम॥

श्याम जीत धर्म रण बल और नरेन्द्र के पापा।
टाफी कुल्फी गुल्ली डंडा और गुब्बारे साधुराम॥

कभी रुठना कभी मनाना फिर बच्चों सा हो जाना।
कृष्णा जी को सदा लगे ही श्याम संवारे साधुराम॥

पौत्र पौत्रिया दोहता दोहती सबके दादा नाना थे।
पर राणा की नैया के तो रहे किनारे साधुराम॥

आंख आंख के आंसू देखे आंख आंख रोती देखी।
चेतन कहता प्रेम प्यार के बड़े फव्वारे साधुराम॥

Wednesday, March 26, 2008

वन्दे मातरम का गायक नहीं रहा


पीतमपुरा में होली कवि सम्मेलन अपने चरम पर था छोटे माइक पर बैठा मैं संचालन कर रहा था मंच पर श्री ओम प्रकाश आदित्य, डा॰ अर्जुन शिशौदिया, श्रीमती ॠतु गोयल, श्री यूसुफ भारद्वार, श्री मनोज कुमार ‘मनोज’ व डा॰ कृष्णकान्त मधुर उपस्थित थे तभी कवि चिराग जैन चुपके से मेरे पास आया और कान में कहा कि भैया श्रवण राही नहीं रहे जैसे ही ताली के लिए हाथ उपर जा रहा था अचानक झटका लगा। समाचार पर विश्वास ही नहीं हुआ इस समय प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक श्री राज कपूर का वह वाक्य “शो मस्ट गो ओन” मेरे को याद आ रहा था सामने खचाखच भरा हाल कविता के आनन्द में डूबा था और मैं श्रवण राही की स्मृतियों में डूबा अपने आप से संघर्ष कर रहा था जैसे तैसे कार्यक्रम सम्पन्न किया अन्य कवियों के टेलीफोन लगातार मेरे मोबाइल पर आ रहे थे प्रातः अंतिम यात्रा का समाचार शम्भु शिखर के एस एम एस से मिला मैं श्री गजेन्द्र सोलंकी के साथ अंतिम संस्कार से लगभग एक घंटा पहले ही श्मशान घाट पहुंच गया था समस्त कवि समाज आपस में श्रवण राही जी के साथ अपने संस्मरणों पर चर्चा कर रहा था। यहां श्री महेन्द्र शर्मा, श्री लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, डा॰ श्यामानन्द सरस्वती, श्री नरेश शांडिल्य, सुश्री सीमा भारद्वाज, श्री राज गोपाल सिंह, श्री चिराग जैन, श्री शम्भु शिखर, श्री सतीश सागर, डा॰ धनंजय सिंह व हिन्दी के अन्य रचनाकार अंतिम यात्रा में सम्मिलित होने आए थे। राष्ट्रीय कवि संगम की ओर से पुष्प चक्र श्रवण राही जी को अर्पित किया गया। एक छोटी सी कागज की पर्ची पर वन्दे मातरम लिख कर कफन पे रखा गया था जब श्रवण राही का शरीर चिता पे रखने लगे तो वह वन्दे मातरम वाली पर्ची नीचे गिर पड़ी तब एक साथ कई स्वर निकले कि भैया राही जी की अंतिम इच्छा पूरी करो और यह वन्दे मातरम की पर्ची कफन पर ही सजा दो। विश्वास नहीं होता कि मृत्यु से आधा घंटा पूर्व काव्य पाठ करते हुए
“वतन के लाल मिटते है वतन पर मातरम वन्दे,
ये ख्वाहिश है कोई लिख दे कफन पर मातरम वन्दे”

ये पंक्तियां कवि सम्मेलन के मंच से गुंजाने वाला कवि होली के दिन वन्दे मातरम गाते हुए हमसे भले ही दूर चला गया होगा परन्तु फिजा में उसका वन्दे मातरम स्वर सदैव गुंजता रहेगा। श्रवण राही को शत शत प्रणाम।

Friday, January 18, 2008

कविवर शैल चतुर्वेदी


दैनिक भास्कर के बिलास्पुर संस्करण् से साभार



शहर से शुरू हुआ था शैल का सफर

हर्ष पाण्डेय


बिलासपुर. कभी क्लास रूम में अपने चुटकुलों और मिमिक्री से साथियों को हंसी के ठहाके लगवाने वाले ‘कक्काजी’ की बातें पूरे देश में लोगों को गुदगुदाएंगी, यह स्वयं उन्हें भी पता नहीं रही होगी। हंसी के इस वृक्ष ने जीवन भर पूरे देश को हंसाया, उसके बीज बिलासपुर की गलियों में पड़े थे।
टीवी सीरियल ‘कक्काजी कहिन’ और ऐसे ही कई सीरियल व फिल्मों के अलावा मंच पर सीधे संवाद कर दर्शकों को हंसाते-गुदगुदाते रहने वाला यह फनकार लोगों को हमेशा के लिए रुलाकर बिछुड़ गया। हम चर्चा कर रहे हैं शैल चतुर्वेदी की।
शायद कम लोगों को ही पता है कि राष्ट्रीय स्तर के कवि, लेखक और हास्य अभिनेता शैल चतुर्वेदी के जीवन के चुनिंदा दिन शहर की गलियों में गुजरे हैं। शैल चतुर्वेदी का नाम सुनते ही मन में उनकी तस्वीर उभर आती है, ऊंचा डील-डौल, भारी शरीर, चेहरे पर हर वक्त मुस्कुराहट और चुटीले संवाद। अपनी कविताओं के दीवानों से ‘कक्काजी’ आज सदा के लिए बिछुड़ गए और छोड़ गए अपनी यादें।
दयालबंद की गलियों में किशोर ‘शैल’ के कुछ महत्वपूर्ण बरस बीते, जब वे गवर्नमेंट स्कूल के क्लास रूम में बैठकर अपने साथियों को चुटकुले और मिमिक्री सुनाया करते थे। 1950 के दशक में हाईस्कूल में पढ़ाई के दौरान यही वह पड़ाव था, जब उन्होंने चुटकुलों को छंद-कविताओं का रूप दिया और न जाने कब ये कविताएं देशभर में रसिक श्रोताओं के दिलोदिमाग में छा गईं। उस दौरान उनके परिवार के संपर्क में रहे शहर के वरिष्ठ साहित्यकार डा. विनय कुमार पाठक बताते हैं कि शैलजी उनके बड़े भाई डा. विमल पाठक के सीनियर स्टूडेंट थे।
श्री चतुर्वेदी के पिता गवर्नमेंट स्कूल में गणित के टीचर थे और प्रमोशन के बाद प्रिंसिपल बने। डा. पाठक पढ़ाई के सिलसिले में शैल के घर अक्सर आते-जाते थे। बचपन में श्री चतुर्वेदी अपने डील-डौल, हास्य-व्यंग्य प्रदर्शित करते चेहरे और संवादों से सहपाठियों की हंसी का कारण बनते थे। यूं कहें कि उनकी चाहत भी यही थी कि हर इंसान हमेशा हंसता रहे।
उम्र की अंतिम दहलीज तक उनका उद्देश्य दूसरों के चेहरे पर मुस्कुराहट लाना रहा है। हाईस्कूल की पढ़ाई के बाद श्री चतुर्वेदी अपने परिवार के साथ होशंगाबाद चले गए थे। समय बीता, दशकों बाद 1970 में वे बिलासपुर आए तो शहर की गलियों और अपने स्कूल को याद करना न भूले। यहां जाजोदिया भवन में कार्यक्रम के दौरान मंच पर माइक संभालते ही श्री चतुर्वेदी ने शहर में बिताए दिनों को याद करते हुए कहा था कि वे यहां की गली-गली से वाकिफ हैं। इस शहर ने उन्हें जो कुछ दिया है, उसे वे कभी नहीं भूल सकते।
वर्ष 2001 में वे बिलासपुर आए थे, तब शायद किसी को यह अंदेशा नहीं रहा होगा कि ‘कक्काजी’ का यह अंतिम प्रवास है। डा. विनय पाठक कहते हैं कि उन्होंने हास्य-कविताओं के माध्यम से हिंदी को लोकप्रिय बनाने की दिशा में भी काफी काम किए हैं।
शैलजी के परिवार के करीब रहे वरिष्ठ साहित्यकार डा. पालेश्वर शर्मा बताते हैं कि उनके पिता के साथ-साथ उनके ताऊ जगन्नाथ प्रसाद चौबे ‘वनमाली’ ने भी यहां शिक्षा के क्षेत्र में योगदान दिया था। गवर्नमेंट स्कूल में उनके सहपाठी रहे कई लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं और जो सहपाठी या परिचित हैं, उन्हें ‘कक्काजी’ के बिछुड़ने का दुख जीवन भर सालता रहेगा।

कविताओं की लाइन लिखते-लिखते न जाने कब श्री चतुर्वेदी राज्य और फिर राष्ट्रीय स्तर के कवि बन गए। उन्होंने न सिर्फ कविताएं लिखीं, बल्कि गोपाल व्यास, काका हाथरसी और हुल्लड़ मुरादाबादी की काव्य परंपरा को विकसित करने में भी योगदान दिया। उनकी कई कृतियां प्रकाशित हुईं, जिनमें से एक ‘चल गई’ पूरी दुनिया में खूब चली। इसके लिए उन्हें ‘काका हाथरसी सम्मान’ और ‘ठिठोली पुरस्कार’ भी मिल चुका है।
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चल गई
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वैसे तो एक शरीफ इंसान हूँ
आप ही की तरह श्रीमान हूँ
मगर अपना आंख से
बहुत परेशान हूँ
अपने आप चलती है
लोग समझते हैं -- चलाई गई है
जान-बूझ कर मिलाई गई है।
एक बार बचपन में
शायद सन पचपन में
क्लास में
एक लड़की बैठी थी पास में
नाम था सुरेखा
उसने हमें देखा
और बांई चल गई
लड़की हाय-हाय
क्लास छोड़ बाहर निकल गई।
थोड़ी देर बाद
हमें है याद
प्रिसिपल ने बुलाया
लंबा-चौड़ा लेक्चर पिलाया
हमने कहा कि जी भूल हो गई
वो बोल - ऐसा भी होता है भूल में
शर्म नहीं आती
ऐसी गंदी हरकतें करते हो,
स्कूल में?
और इससे पहले कि
हकीकत बयान करते
कि फिर चल गई
प्रिंसिपल को खल गई।
हुआ यह परिणाम
कट गया नाम
बमुश्किल तमाम
मिला एक काम।
इंटरव्यूह में, खड़े थे क्यू में
एक लड़की था सामने अड़ी
अचानक मुड़ी
नजर उसकी हम पर पड़ी
और आंख चल गई
लड़की उछल गई
दूसरे उम्मीदवार चौंके
फिर क्या था
मार-मार जूते-चप्पल
फोड़ दिया बक्कल
सिर पर पांव रखकर भागे
लोगबाग पीछे, हम आगे
घबराहट में घुस गये एक घर में
भयंकर पीड़ा था सिर में
बुरी तरह हांफ रहे थे
मारे डर के कांप रहे थे
तभी पूछा उस गृहणी ने --
कौन ?
हम खड़े रहे मौन
वो बोली
बताते हो या किसी को बुलाऊँ ?
और उससे पहले
कि जबान हिलाऊँ
चल गई
वह मारे गुस्से के
जल गई
साक्षात दुर्गा-सी दीखी
बुरी तरह चीखी
बात की बात में जुड़ गये अड़ोसी-पड़ोसी
मौसा-मौसी
भतीजे-मामा
मच गया हंगामा
चड्डी बना दिया हमारा पजामा
बनियान बन गया कुर्ता
मार-मार बना दिया भुरता
हम चीखते रहे
और पीटने वाले
हमें पीटते रहे
भगवान जाने कब तक
निकालते रहे रोष
और जब हमें आया होश
तो देखा अस्पताल में पड़े थे
डाक्टर और नर्स घेरे खड़े थे
हमने अपनी एक आंख खोली
तो एक नर्स बोली
दर्द कहां है?
हम कहां कहां बताते
और इससे पहले कि कुछ कह पाते
चल गई
नर्स कुछ नहीं बोली
बाइ गॉड ! (चल गई)
मगर डाक्टर को खल गई
बोला --
इतने सीरियस हो
फिर भी ऐसी हरकत कर लेते हो
इस हाल में शर्म नहीं आती
मोहब्बत करते हुए
अस्पताल में?
उन सबके जाते ही आया बार्ड बॉय
देने लगा अपनी राय
भाग जाएं चुपचाप
नहीं जानते आप
बढ़ गई है बात
डाक्टर को गड़ गई है
केस आपका बिगड़वा देगा
न हुआ तो मरा बताकर
जिंदा ही गड़वा देगा।
तब अंधेरे में आंखें मूंदकर
खिड़की के कूदकर भाग आए
जान बची तो लाखों पाये।
एक दिन सकरे
बाप जी हमारे
बोले हमसे --
अब क्या कहें तुमसे ?
कुछ नहीं कर सकते
तो शादी कर लो
लड़की देख लो।
मैंने देख ली है
जरा हैल्थ की कच्ची है
बच्ची है, फिर भी अच्छी है
जैसी भी, आखिर लड़की है
बड़े घर की है, फिर बेटा
यहां भी तो कड़की है।
हमने कहा --
जी अभी क्या जल्दी है?
वे बोले --
गधे हो
ढाई मन के हो गये
मगर बाप के सीने पर लदे होवह घर फंस गया तो संभल जाओगे।
तब एक दिन भगवान से मिलके
धड़कता दिल ले
पहुंच गए रुड़की, देखने लड़की
शायद हमारी होने वाली सास
बैठी थी हमारे पास
बोली --
यात्रा में तकलीफ तो नहीं हुई
और आंख मुई चल गई
वे समझी कि मचल गई
बोली --
लड़की तो अंदर है
मैं लड़की की मां हूँ
लड़की को बुलाऊँ
और इससे पहले कि मैं जुबान हिलाऊँ
आंख चल गई दुबारा
उन्होंने किसी का नाम ले पुकारा
झटके से खड़ी हो गईं
हम जैसे गए थे लौट आए
घर पहुंचे मुंह लटकाए
पिता जी बोले --
अब क्या फायदा
मुंह लटकाने से
आग लगे ऐसी जवानी में
डूब मरो चुल्लू भर पानी में
नहीं डूब सकते तो आंखें फोड़ लो
नहीं फोड़ सकते हमसे नाता ही तोड़ लो
जब भी कहीं जाते हो
पिटकर ही आते हो
भगवान जाने कैसे चलाते हो?
अब आप ही बताइये
क्या करूं?
कहां जाऊं?
कहां तक गुन गांऊं अपनी इस आंख के
कमबख्त जूते खिलवाएगी
लाख-दो-लाख के।
अब आप ही संभालिये
मेरा मतलब है कि कोई रास्ता निकालिये
जवान हो या वृद्धा पूरी हो या अद्धा
केवल एक लड़की
जिसकी एक आंख चलती हो
पता लगाइये
और मिल जाये तो
हमारे आदरणीय 'काका' जी को बताइये।